दीवाना दोराहे पे खड़ा सोच रहा है का'बे में ख़ुदा है तो सनम-ख़ाने में क्या है साक़ी की निगाहों से जो सरशार हुआ है पैमाना उठाने की ज़रूरत उसे क्या है उलझी हुई ज़ुल्फ़ें तिरी सुलझाएँगे कैसे वो लोग जिन्हें गर्दिश-ए-दौराँ से गिला है ये मंज़िल-ए-फ़ुर्क़त पे शब-ए-हिज्र का आलम तारों की तरह दिल भी मिरा डूब रहा है कुछ रहज़न-ओ-रहबर पे ही मौक़ूफ़ है हमदम इस दौर में देखो जिसे दीवाना हुआ है मय-कश हैं न साक़ी है न साग़र है न बादा रिंदो मेरे मयख़ाने की तरकीब जुदा है तूफ़ान की हर मौज से ऐ 'शाद' यही पूछ कुछ डूबने वालों का बता तुझ को पता है