हम ख़मोशी से जो बेताब हुआ करते हैं बंदगानी के भी आदाब हुआ करते हैं कितने चमके हैं दो पत्थर ये मिरे चेहरे पर मरती आँखों में भी कुछ ख़्वाब हुआ करते हैं कोई मिटते हुए लोगों को कभी देखे सही टूटे हीरे हैं जो ग़र्क़ाब हुआ करते हैं ये अलग बात नमी उन की हवाओं में रहे ख़ुश्क आँखों में भी सैलाब हुआ करते हैं बहते आँसू से पता मेरा न पूछो हमदम भारी पत्थर तो तह-ए-आब हुआ करते हैं ऐसे खलियानों की क़िस्मत में कोई फूल कहाँ खारे पानी से जो सैराब हुआ करते हैं कौन कहता है बदलता नहीं रंगत पानी अश्क छल्कें तो वो ख़ूँ-नाब हुआ करते हैं जो दर-ए-यार पे दम तोड़ दिया करती हैं उन निगाहों में भी महताब हुआ करते हैं