दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था! दुनिया में अपना कोई कहीं आश्ना न था! धड़कन का दर्द जिस्म को तड़पा के रह गया रग रग में एक शोर-ए-मसीहा बपा न था! इक कश्मकश के बा'द तअ'ल्लुक़ नहीं रहा बेगाना हो के हम से वो लेकिन ख़फ़ा न था! दीवार-ओ-दर पे पर्दे लटकते थे हर तरफ़ इफ़्लास कोने कोने में लेकिन छुपा न था! ज़ंजीरें लाख टूटीं मगर ख़ौफ़-ए-हुक्मराँ मजबूरियों के जाल से कोई रिहा न था! इक अपनी चीख़ से लरज़ उठ्ठे थे बाम-ओ-दर आई न बाज़गश्त कोई हम-नवा न था! आते रहे न जाने कहाँ से ख़तों पे ख़त बे-नूर चश्म-ए-नम ने किसी को पढ़ा न था!