दीवानगी ने ख़ूब करिश्मे दिखाए हैं अक्सर तिरे बग़ैर भी हम मुस्कुराए हैं अब ऐ ग़म-ए-ज़माना तिरा क्या ख़याल है हम अपने साथ ले के ग़म-ए-इश्क़ आए हैं मय-ख़ाने की तरफ़ जो बढ़े हैं तो होशियार काबा का रुख़ किया है तो हम डगमगाए हैं इक सुब्ह-ए-ज़र-निगार की ख़ातिर तमाम रात हम ने कई चराग़ जलाए बुझाए हैं हम पर भी रहगुज़ार-ए-मोहब्बत को नाज़ है हम ने भी कुछ नुक़ूश मिटा कर बनाए हैं यूँ भी मिली है मुझ को मिरे ज़ब्त-ए-ग़म की दाद अक्सर वो सर झुकाए हुए मुस्कुराए हैं हैरत से देखता है ज़माना हमें 'अयाज़' उस तक पहुँच पहुँच के जो हम लौट आए हैं