दीवार-ओ-दर के ऐब का मे'मार क्या करें पत्थर अलग अलग हैं तो आसार क्या करें कब से भटक रहे हैं तलबगार क्या करें हाइल हुए हैं राह में कोहसार क्या करें अफ़सोस छिन गया है रिवायात का लिबास उर्यां हुए हैं आज के अशआ'र क्या करें अब ख़त्त-ए-मुसतक़ीम हैं रिश्तों के दाएरे मरकज़ ही जब नहीं है तो परकार क्या करें बाज़ू ही कट गए हैं तो लड़ने से फ़ाएदा अब हम किसी से माँग के तलवार क्या करें शो'ले नहीं कि जिन को बुझाया न जा सके जलने लगें हुरूफ़ तो फ़नकार क्या करें 'शाहिद' तमाम शहर अँधेरों में खो गया अब इम्तियाज़-ए-कूचा-ओ-बाज़ार क्या करें