दीवार-ओ-दर का नाम था कोई मकाँ न था मैं जिस ज़मीन पर था वहाँ आसमाँ न था मैं दुश्मनों की तरह रहा ख़ुद से दूर क्यूँ अपने सिवा तो कोई मिरे दरमियाँ न था क़दमों में तपती रेत थी चारों तरफ़ थी आग और ज़िंदगी के सर पर कोई साएबाँ न था ढूँडी थी माँ की गोद में जा-ए-अमाँ मगर बेचैनियों को मेरी वहाँ भी अमाँ न था मेरे सफ़र में भीड़ जो थी हम-क़दम मिरी यादों की थी बरात कोई कारवाँ न था अपने हिसार-ए-जिस्म में कब रह सका 'नज़र' देखा गया था उस को जहाँ वो वहाँ न था