दिया फ़रेब तमन्ना को हर घड़ी मैं ने मुराद मन की न पाई मगर कभी मैं ने उमीद-ओ-बीम से दिल को नजात मिल न सकी गुज़ार दी है तज़ब्ज़ुब में ज़िंदगी मैं ने ख़िरद का राग मिरे ग़म से दाद पा न सका जुनूँ को सौंप दिया साज़-ए-आगही मैं ने बुला के मुझ को सर-ए-बज़्म बे-हिजाब किया तिरे करम की हक़ीक़त भी देख ली मैं ने विसाल-ओ-हिज्र के झगड़ों से बे-नियाज़ हूँ मैं इसी में देखी है ले दे के बेहतरी मैं ने तिरे जुनूँ के तअ'ल्लुक़ मैं क्या कहूँ 'साबिर' तुझे क़रीब से देखा नहीं अभी मैं ने