ऐ मेरे शहर-ए-इश्क़ तिरा कैसा बख़्त है मैं जिस को देखता हूँ वही लख़्त लख़्त है ख़ुश हो रहा हूँ इस लिए मिट्टी पे बैठ कर यारो यही ज़मीन मिरा पहला तख़्त है छाँव की जुस्तुजू भी कहाँ ले के आ गई सहरा से पूछता हूँ कहीं पर दरख़्त है दुनिया मिरे मिज़ाज को समझी नहीं अभी शायद इसी लिए मेरा लहजा करख़्त है इक पल में कैसे निकलूँ मैं दुनिया समेट कर सारी ज़मीं पे बिखरा हुआ मेरा रख़्त है 'एहसान' वो तो फूल से नाज़ुक लगा मुझे मैं तो समझ रहा था वो पत्थर से सख़्त है