दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे इक ऐसी नज़र चश्म-ए-मख़मूर कर दे नसीब-ए-मोहब्बत है अब वो तमन्ना उन्हें जो तग़ाफ़ुल से माज़ूर कर दे तिरे क़ुर्ब की हाए ये शान क्या है जो इदराक-ए-हस्ती से भी दूर कर दे कोई किस तरह पाए उस हम-नशीं को जिसे जुस्तुजू मंज़िलों दूर कर दे जमाल उस को कहिए कि परतव ही जिस का हिजाबों को नूरुन-अला-नूर कर दे न अब होश का बस न ताक़त जुनूँ में कि हाल-ए-तबीअत ब-दस्तूर कर दे 'सुहा' जल्वा-ए-शोख़ शादाब उन का शबाब-ए-गुलिस्ताँ को बे-नूर कर दे