इसी आशिक़ी में पैहम हुई ख़ानुमाँ-ख़राबी दिल-ए-मुब्तला की अब तक है वही जुनूँ-मआबी रहे सोज़-ए-इश्क़ लेकिन गए होश फिर न आएँ वो तजल्लियों से पुर है तिरी चश्म की गुलाबी हमें तुम अब अपनी महफ़िल में बुला के क्या करोगे न वो जोश-ए-बारयाबी न वो होश-ए-कामयाबी जो सुने तो दाद मुमकिन है मगर भला सुने क्यूँ मेरी बेबसी के शिकवे तिरा हुस्न-ए-ला-जवाबी मगर इतनी सादगी भी तो बजाए ख़ुद अदा है ब-ख़याल-ए-पर्दा-दारी ब-जमाल-ए-आफ़्ताबी मिरी आरज़ू निगाही ने सितम किया सिखा कर तिरे इस शबाब-ए-रंगीं को मज़ाक़-ए-बे-हिजाबी कोई होश्यार क्यूँकर इसे दिलबरी में जाने ये नज़र कि जो ब-ज़ाहिर है शुआ-ए-नीम-ख़्वाबी न सही 'सुहा' कि आलम पे हो आश्कार वर्ना मिरी ख़ाकसारियों में है शिकवा-ए-बू-तुराबी