दो भी बोसे मुझे इक माह में ऐ माह न दो वज़्अ ये क्या है कि नौकर रखो तनख़्वाह न दो ख़ुश-अदा और तो क्या तुम से तवक़्क़ो अफ़्सोस एक गाली भी मुझे आन के तुम आह न दो बे-मज़ा हो के जो बोसे भी दिए क्या है मज़ा वो तो इक राह मोहब्बत से ब-इकराह न दो याद चश्म-ए-बुत-ए-मग़रूर दिलाए है मुझे दोस्तो तुम गुल-ए-नर्गिस मुझे लिल्लाह न दो एक ख़जलत सी है ख़जलत मुझे उश्शाक़ में आह कि सर-अंजाम हुए नाला-ए-दिल ख़्वाह न दो एक भी बोसा न दो कहते हो फिर नाज़ से तुम हम तो इक बोसा तुझे देवेंगे ऐ वाह न दो दर किया बंद तो दीवार से आया 'एहसाँ' ऐसे बे-राह को घर अपने में तुम राह न दो