दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद तुम हमेशा रहो ऐ हसरत-ओ-अरमाँ आबाद तुझ से ऐ दर्द है क़स्र-ए-दिल-ए-वीराँ आबाद किया सर-अफ़राज़ किया ख़ाना-वीराँ आबाद जिस जगह बैठ के रोए वो मकाँ डूब गए शहर होने नहीं देते तिरे गिर्यां आबाद क़ैस-ओ-फ़रहाद के दम से भी अजब रौनक़ थी कुछ दिनों ख़ूब रहे कोह-ओ-बयाबाँ आबाद वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने तुम हुए ख़ाना-नशीं हो गईं गलियाँ आबाद आमद-ए-क़ाफ़िला-ए-दर्द-ओ-अलम है सद-शुक्र आज होती है सरा-ए-दिल-ए-वीराँ आबाद मिट गए दाग़-ए-जिगर हुस्न-ए-रुख़-ए-यार गया कल की है बात कि था क्या ये गुलिस्ताँ आबाद तेरे दीवानों के जिस दश्त से उठ्ठे बिस्तर वहशियों से न हुआ फिर वो बयाबाँ आबाद सूरत-ए-शम्अ हुआ ख़ाक-ए-बदन जल जल कर हम ने तुर्बत भी न की ऐ शब-ए-हिज्राँ आबाद सोहबतें हो गईं बर्बाद गुल-अंदामों की ख़ाक उड़ती है वहाँ थे जो गुलिस्ताँ आबाद सीना ओ दिल में ख़ुशी से न जगह थी ग़म की ऐ 'तअश्शुक़' ये मकाँ भी थे कभी हाँ आबाद