दो-‘आलम की बिना क्या जाने क्या है निशान-ए-मा-सिवा क्या जाने क्या है हक़ीक़त पूछ गुल की बुलबुलों से भला उस को सबा क्या जाने क्या है हुआ हूँ उन का 'आशिक़ है ये इक जुर्म मगर इस की सज़ा क्या जाने क्या है मिरे मक़्सूद-ए-दिल तो बस तुम्हीं हो तुम्हारा मुद्द'आ क्या जाने क्या है न 'अकबर' सा कोई नादाँ न ज़ी-होश हर इक शय को कहा क्या जाने क्या है