दुनिया का ज़रा ये रंग तो देख एक एक को खाए जाता है बन-बन के बिगड़ता जाता है और बात बनाए जाता है इंसान की ग़फ़्लत कम न हुई क़ानून-ए-फ़ना की 'इबरत से हर गाम पे कितने पाँव भी हैं और सर भी उठाए जाता है इस को न ख़बर कुछ उस की है उस को है न कुछ पर्वा इस की रोता है रुलाए जाता है हँसता है हँसाए जाता है कुछ सोच नहीं कुछ होश नहीं फ़ित्नों के सिवा कुछ जोश नहीं वो लूट के भागा जाता है ये आग लगाए जाता है