दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था क़ातिल-ए-शहर से पर रब्त रक़ीबाना था वो खुले जिस्म फिरा शहर के बाज़ारों में लोग कहते हैं ये इक़दाम दिलेराना था बंद मुट्ठी में मिरी राख थी ताबीरों की उस की आँखों में भी इक ख़्वाब मरीज़ाना था लग़्ज़िश-ए-पा भी हर इक गाम थी साया साया ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ भी शरीफ़ाना था तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए वो गुज़रगाह मिरी ज़ात का वीराना था सुनते हैं अपनी ही तलवार उसे काट गई दोस्तो हम में जो इक शख़्स हरीफ़ाना था