दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई रौशनी मुझ में सितारे से निकल कर आई जिस ने कश्ती को डुबोया सर-ओ-सामान समेत वो घनी मौज किनारे से निकल कर आई राख झाड़ी जो बदन की तो अचानक बाहर आग ही आग शरारे से निकल कर आई पेड़ मबहूत हुए देख के इस मंज़र को धूप जब उस के इशारे से निकल कर आई आँख में अश्क रियाज़त से हुआ है पैदा ये नमी वक़्त के धारे से निकल कर आई कौन तकिया करे महताब की उस रौशनी पर सामने भी जो सहारे से निकल कर आई ख़ुद भी हैरान हूँ ये सोच के 'आज़र' अब तक ज़िंदगी कैसे ख़सारे से निकल कर आई