दोस्त को महरम बना कर दुश्मन-ए-जाँ कर दिया तू ने ऐ दिल आप बर्बादी का सामाँ कर दिया लग़्ज़िश-ए-आदम तो हम तक आई है मीरास में थे फ़रिश्ते लेकिन इस ख़ूबी ने इंसाँ कर दिया मेहरबाँ ने ग़म ग़लत करने की रक्खी है सबील जब पड़ा है क़हत-ए-मय तो ज़ह्र अर्ज़ां कर दिया कैसे कैसे अज़्म हो कर रह गए मंज़िल की नज़्र कैसी कैसी ख़्वाहिशों को तुम ने अरमाँ कर दिया कब ख़िरद में ज़ोफ़ आया है कभी लेकिन उसे वसवसों ने कुंद अंदेशों ने हैराँ कर दिया हम ने भी महसूस की ठंडक ज़रा सी छाँव में आज 'शौकत' किस ने ज़ुल्फ़ों को परेशाँ कर दिया