हम अज़ीज़ इस क़दर अब जी का ज़ियाँ रखते हैं

हम अज़ीज़ इस क़दर अब जी का ज़ियाँ रखते हैं
दोस्त भी रखते हैं तो दुश्मन-ए-जाँ रखते हैं

हाँ वही लोग जो दिल-दादा-ए-फ़स्ल-ए-गुल थे
हैं वो बेज़ार के अरमान-ए-ख़िज़ाँ रखते हैं

ज़ह्न अफ़्सुर्दा हुआ ऐसा कि आ'साब हैं शल
वर्ना हम नाम-ए-ख़ुदा क़ल्ब जवाँ रखते हैं

साए से करते हैं हम अपने कड़ी धूप में ओट
आँख की तीरगी में नूर-फ़िशाँ रखते हैं

लब-ए-महबूब हो पैमाना-ए-साफ़ी हो कि ज़ह्र
जिस्म जल उठता है हम होंट जहाँ रखते हैं

हम-सफ़र कोई जहाँ छोड़ के चल देता है
उसी मंज़िल का लक़ब संग-ए-गिराँ रखते हैं

जिस जगह दिल था वहाँ हसरत-ए-दिल बाक़ी है
जिस जगह ज़ख़्म था अब सिर्फ़ निशाँ रखते हैं

लड़खड़ा जाते हैं मय-ख़ाना हो जैसे दुनिया
लाख हम पाँव सँभल कर भी यहाँ रखते हैं

उन की दुज़्दीदा निगाहों को दुआ दो 'शौकत'
वर्ना मालूम जो हम तब-ए-रवाँ रखते हैं


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