दोस्ती या रब्त अगर बाहम रहे आदमी क्यों मुब्तला-ए-ग़म रहे उन के आगे सर किसी का ख़म रहे शैख़ क्यों इस बात से बरहम रहे ऐन मुमकिन है कि रोज़-ए-हश्र तक कशतगान-ए-इशक़ का मातम रहे दर्द पाते हैं जो लज़्ज़त से उन्हें क्यों तलाश-ए-चारा-ए-मरहम रहे ज़िंदगी पर इक निखार आ जाएगा ग़म मसर्रत में अगर मुदग़म रहे हो सके उस से न हरगिज़ आश्ना मुद्दतों जिस बाग़ में आदम रहे