दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ क़र्ज़ है रिश्ता-ए-जाँ क़र्ज़ चुकाते जाओ रहे ख़ामोश तो ये होंट सुलग उठेंगे शोला-ए-फ़िक्र को आवाज़ बनाते जाओ अपनी तक़दीर में सहरा है तो सहरा ही सही आबला-पाओ! नए फूल खिलाते जाओ ज़िंदगी साया-ए-दीवार नहीं दार भी है ज़ीस्त को इश्क़ के आदाब सिखाते जाओ बे-ज़मीरी है सर-अफ़राज़ तो ग़म कैसा है अपनी तज़लील को मेआर बनाते जाओ ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार हो सके तुम से नया ज़ख़्म लगाते जाओ कारवाँ अज़्म का रोके से कहीं रुकता है लाख तुम राह में दीवार उठाते जाओ एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआम जाते जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ जिन को गहना दिया अफ़्कार की परछाईं ने 'मोहसिन' उन चेहरों को आईना दिखाते जाओ