एक मैं हूँ एक तू है बा-ख़बर कोई नहीं हाथ में दे हाथ अपना सर-ब-सर कोई नहीं शाम मुशफ़िक़ है क़रीब आ दर्द का दरमाँ करें रात के सहरा में अपना चारा-गर कोई नहीं रेत के सीने पे रह रह कर चमक उठता है कुछ अब ब-जुज़ इक नक़्श-ए-पा के राहबर कोई नहीं मोड़ के बाएँ तरफ़ है संग अंदाज़ों का शहर दिल सा आईना न ले जा शीशागर कोई नहीं जाने ये आसेब है किस की सदा का दर-ब-दर मैं यहाँ हूँ मैं यहाँ हूँ दीदा-वर कोई नहीं ढूँडते फिरते हो किस को चाँद की मशअ'ल लिए ज़िंदगी इक फ़ासला है मुंतज़र कोई नहीं