दोज़ख़-ओ-जन्नत है अब मेरी नज़र के सामने घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने नासेहा जी किस का लेता है खुलूँगा तुझ से मैं दिल को पर्दा है मोहब्बत में जिगर के सामने इश्क़ के रुत्बे के आगे आसमाँ भी पस्त है सर झुकाया है फ़रिश्तों ने बशर के सामने ख़्वाब में शब को ख़याल आया था जन्नत का हमें सुब्ह देखा तो पड़े हैं तेरे दर के सामने रात महताबी पे चढ़ता ही न था वो मेहर-वश पाँव पड़ कर चाँदनी लाई क़मर के सामने ख़ाक देखा कुछ शबिस्तान-ए-जहाँ में ओ 'नसीम' ढेर परवानों का था शम-ए-सहर के सामने