मैं बज़्म की मुतहय्यर समाअ' कर दूँ क्या ग़ज़ल की सिंफ़ में कुछ इख़तिराअ' कर दूँ क्या बग़ैर उस के भी ज़िंदा हूँ और मज़े में हूँ बिछड़ने वाले को ये इत्तिलाअ' कर दूँ क्या मुझे पसंद नहीं अज़दहाम लोगों का ये मुन्कशिफ़ मैं सर-ए-इज्तिमाअ' कर दूँ क्या मुझे तो तुम ने ही बर्बाद कर दिया लेकिन तुम्हारे हक़ में तुम्हारी दिफ़ा कर दूँ क्या तुम्हें पसंद नहीं है मिरा ये कार-ए-सुख़न तमाम ग़ज़लें कहो नज़्र-ए-जाँ कर दूँ क्या इसी सबब तो परेशान-हाल रहता हूँ अना के ज़ो'म को 'आज़म' विदाअ' कर दूँ क्या