डुबो के मुल्क से तेरे हिसाब का सूरज निकालना है हमें इंक़लाब का सूरज किसी भी शख़्स को लाते नहीं वो नज़रों में बुलंदियों पे अभी है जनाब का सूरज मिटा के ज़ुल्म की रख देगा ये तमाज़त को निकल रहा है नई आब-ओ-ताब का सूरज है नूर छाया हुआ हर तरफ़ ज़माने में चमक रहा है किसी के शबाब का सूरज अगर ग़रीब का बेबस का दिल दुखाएगा जला के छोड़ेगा तुझ को अज़ाब का सूरज जबीं पे आप की सज्दों के गर निशाँ होंगे लहद को रक्खेगा रौशन सवाब का सूरज ख़ुदा की ज़ात से उम्मीद है ये 'शाद' हमें उगेगा एक दिन अपने हिसाब का सूरज