डुबोए देता है ख़ुद-आगही का बार मुझे मैं ढलता नश्शा हूँ मौज-ए-तरब उभार मुझे ऐ रूह-ए-अस्र में तेरा हूँ तेरा हिस्सा हूँ ख़ुद अपना ख़्वाब समझ कर ज़रा सँवार मुझे बिखर के सब में अबस इंतिज़ार है अपना जला के ख़ाक कर ऐ शम-ए-इंतिज़ार मुझे सदा-ए-रफ़्ता सही लौट कर मैं आऊँगा फ़राज़-ए-ख़्वाब से ऐ ज़िंदगी पुकार मुझे अज़ाब ये है कि मुझे जैसे फूल और भी हैं सलीब-ए-शाख़ से दस्त-ए-ख़िज़ाँ उतार मुझे ग़रीब-ए-शहर नवा ही सही मगर यारो बहुत है अपनी ही आवाज़ का दयार मुझे