दुख तू देता है करूँ मैं तुझ को हैराँ तो सही बाग़बाँ अब के उजाड़े तू गुलिस्ताँ तो सही अब्र में देता नहीं तू मुझ को ऐ साक़ी शराब मैं करूँ शीशे को तेरे संग-बाराँ तो सही अब तो नासेह के तईं सीने दो मेरा चाक-ए-जेब तार-तार इस ज़िद से कर दूँ मैं गरेबाँ तो सही लोग कब ख़ातिर में लाते हैं मिरे वीराने को अश्क-ए-ख़ूँ से बाग़ कर डालूँ बयाबाँ तो सही अपने बंदों को जला कर ख़ाक करते हैं 'यक़ीं' इन बुतों की ज़िद से हो जाऊँ मुसलमाँ तो सही