दुखों के दश्त ग़मों के नगर में छोड़ आए वो हम-सफ़र कि जिन्हें हम-सफ़र में छोड़ आए बहुत जमील सी यादों को साथ ले आए बहुत मलूल से चेहरों को घर में छोड़ आए बड़े क़रीने से हम आ गए किनारे पर बड़े सलीक़े से कश्ती भँवर में छोड़ आए किस एहतिमाम से अब तक पुकारती हैं हमें वो चाहतें जिन्हें दीवार-ओ-दर में छोड़ आए बहुत अजीब थे वो लोग जो दम-ए-रुख़्सत कई कहानियाँ उस चश्म-ए-तर में छोड़ आए न दिन ही फिरते हैं 'मोहसिन' न शब बदलती है वतन को कौन से शाम-ओ-सहर में छोड़ आए