दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए हम दिल से कलमा-गो किसी काफ़िर के हो गए उट्ठे न बैठ कर कभी कू-ए-हबीब से उस दर पे क्या गए कि उसी दर के हो गए ऐ चश्म-ए-यार मान गए तेरे सेहर को दिल दे के मो'तक़िद तिरे मंतर के हो गए हम अर्ज़-ए-हाल कर न सके उफ़-रे रोब-ए-हुस्न जाते ही उन के सामने पत्थर के हो गए ऐ 'ख़ार' दिल जिगर पे ही क़ाबू नहीं रहा हम से ख़िलाफ़ ग़ैर तो क्या घर के हो गए