दुनिया की जफ़ाएँ भूल गईं तक़दीर का शिकवा भूल गए जब उन से निगाहें चार हुईं सब अपना-पराया भूल गए इक मस्त-ए-नज़र ने साक़ी की रिंदों पे कुछ ऐसा सेहर किया फ़िक्र-ए-मय-ओ-मीना क्या कहिए ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना भूल गए हम और किसी की बज़्म-ए-तरब ये राज़ समझ में आ न सका ऐ इश्क़ कहीं ऐसा तो नहीं वो हम को भुलाना भूल गए उस जान-ए-बहाराँ ने जब से मुँह फेर लिया है गुलशन से शाख़ों ने लचकना छोड़ दिया ग़ुंचे भी चटकना भूल गए रहमत का सबब थी पुर्सिश-ए-ग़म लेकिन ये तमाशा ख़ूब रहा वो छेड़ के सुनना भूल गए हम कह के सुनाना भूल गए कुल्फ़त में मज़े आसाइश के फूलों पे गुमाँ अंगारों का नश्शे में जवानी के गोया हम फ़ितरत-ए-दुनिया भूल गए बर्बाद-ए-ग़म ऐसे ऐसे भी देखे हैं इसी दुनिया में कभी हम जिन की शिकस्ता-हाली पर दो अश्क बहाना भूल गए अंदाज़ा-ए-सोज़-ए-ग़म न किया ये भूल हुई हम से पहले फिर उस पे क़यामत वो अपने दामन को बचाना भूल गए तूफ़ान-ए-मोहब्बत में हम ने पाया है 'अदीब' इस तरह सुकूँ आँखों से किनारा ओझल था दिल से भी किनारा भूल गए