दुनिया की लज़्ज़तों से मफ़र कर रहा हूँ मैं बस सादगी से उम्र बसर कर रहा हूँ मैं पलकों पे आँसूओं को गुहर कर रहा हूँ मैं रौशन अँधेरी रात में घर कर रहा हूँ मैं अब उस की याद से कभी उस के हबीब की आबाद अपने दिल का नगर कर रहा हूँ मैं जब मुझ को गुल्सिताँ का मुहाफ़िज़ बना दिया यूँ दूर उस से बर्क़-ओ-शरर कर रहा हूँ मैं मुमकिन है फूट निकले कभी नख़्ल-ए-आरज़ू सूखी ज़मीं को आब से तर कर रहा हूँ मैं शायद क़ुबूल कर ले किसी दिन वो मेरी बात पैदा ज़बाँ में 'यास' असर कर रहा हूँ मैं