दुनिया में जी रहा हूँ मगर जी उचट गया सदियों का जो सफ़र था वो इक पल में कट गया मुद्दत के बाद मुझ को जगाया ज़मीर ने फिर यूँ हुआ कि ज़ेहन गुनाहों से हट गया घर की मोहब्बतों का वो आलम न पूछिए ज़ंजीर सा ये कौन क़दम से लिपट गया दरिया हूँ एक मैं मिरा अपना वजूद है क़तरा मुझे समझ के समुंदर पलट गया आख़िर को दिल का बोझ उतर ही गया 'हकीम' लफ़्ज़ों में मेरा दर्द बख़ूबी सिमट गया