दुनिया में वफ़ा-केश बशर ढूँढ रहा हूँ मैं नख़्ल-ए-सनोबर में समर ढूँढ रहा हूँ मैं अपनी दुआओं में असर ढूँढ रहा हूँ तारीक फ़ज़ाओं में क़मर ढूँढ रहा हूँ मैं और तमाशा-ए-गुल-ओ-रंग पे माइल खोया हुआ इक ज़ौक़-ए-नज़र ढूँढ रहा हूँ वो सुब्ह-ए-क़यामत में हुए जाते हैं पिन्हाँ मैं शाम-ए-मुसीबत की सहर ढूँढ रहा हूँ ख़ुशबू की तरह ख़ल्वत-ए-गुल से हूँ रमीदा ज़िंदान-ए-तमन्ना से मफ़र ढूँढ रहा हूँ तश्बीह के अफ़्सूँ का असर पूछो न 'रा'ना' शमशीर में उस बुत की नज़र ढूँढ रहा हूँ