दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी लेकिन बदलते रहते हैं उन्वान-ए-ज़िंदगी क्या काम कर रहा है ये मेहमान-ए-ज़िंदगी भरता है क्यूँ गुनाह से दामान-ए-ज़िंदगी वहशत-नसीब है सर-ओ-सामान-ज़िंदगी उल्फ़त में तार तार है दामान-ज़िंदगी है देखने की चीज़ भी कुछ देखता है क्या सैर-ए-जहाँ है ख़्वाब-ए-परेशान-ए-ज़िंदगी काफ़ी है अपने वास्ते आराइश-ए-वजूद आराइशों से पाक है दामान-ज़िंदगी मौजों से खेलता हुआ बाहर निकल न जा आख़िर ये किस लिए ग़म-ए-तूफ़ान-ए-ज़िंदगी इक दिन हयात-ओ-मौत की इस खींच-तान में हाथों से छूट जाएगा दामान-ए-ज़िंदगी मरना ही जब जहाँ में है जीने का मा-हसल नाहक़ उठाएँ किस लिए एहसान-ए-ज़िंदगी समझे हुए थे हम जिसे ऐश-ओ-तरब का घर ज़िंदान-ए-ग़म बना है वो ऐवान-ए-ज़िंदगी पीरी चलेगी क्या मिरी पीरी के दौर में आए कहाँ से पहली सी अब शान-ए-ज़िंदगी है फ़स्ल-ए-गुल का ज़ोर बहारों पे है शबाब क्या पुर-फ़ज़ा है आज गुलिस्तान-ए-ज़िंदगी किस से वफ़ा की दहर में 'ख़ुशतर' उमीद है अहद-ए-वफ़ा से दूर है पैमान-ए-ज़िंदगी