किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद मिरा हो किस तरह से दर्द-ए-सर बंद नहीं हैं तेरे दाम-ए-ज़ुल्फ़ में दिल लटकते हैं हज़ारों मुर्ग़ पर-बंद नहीं बुत-ख़ाना ओ का'बा पे मौक़ूफ़ हुआ हर एक पत्थर में शरर बंद रक़ीबों से हुई है बज़्म ख़ाली करो दरवाज़ा बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर बंद तमाशा बंद आँखों में है मुझ को हुई मेरी ब-ज़ाहिर चश्म-ए-तर बंद नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को है दिन में शम्स और शब को क़मर बंद दिखाओ मय-कशो अब ज़ोर-ए-मस्ती किया ज़ाहिद ने मय-ख़ाने का दर बंद दर-ए-जानाँ भी इक मरजा है 'बहराम' हुजूम-ए-आशिक़ाँ है रहगुज़र बंद