दूर फ़ज़ा में एक परिंदा खोया हुआ उड़ानों में उस को क्या मालूम ज़मीं पर चढ़े हैं तीर कमानों में फूल तोड़ के लोग ले गए ऊँचे बड़े मकानों में अब हम काँटे सजा के रक्खें मिट्टी के गुल-दानों में बे-दर-ओ-बाम ठिकाना जिस में धूल धूप सन्नाटा ग़म वही है मुझ वहशी के घर में जो कुछ है वीरानों में आप के क़दमों की आहट से शायद ख़्वाब से जाग उठे सोई हुई वीरान उदासी कमरों में दालानों में रंज ओ अलम तन्हाई के साथी गुज़र बसर को काफ़ी हैं ख़ुशी तो शामिल हो जाती है आए गए मेहमानों में अरमाँ सजे सजे पलकों पर तार तार थी अपनी जेब अपने लिए तो ज़ख़्म-ए-दिल थे बाज़ार और दुकानों में वक़्त ने कैसा रूप दिया जो लोग नहीं पहचान सके काश कि ख़ुद को देख भी सकते जग के आईना-ख़ानों में ज़िक्र-ए-'शम्स' उदास करेगा छोड़ो और कोई बात करो ऐसे शख़्स की क्यूँ तुम गिनती गिनते हो इंसानों में