दूर ता-हद्द-ए-उफ़ुक़ मंज़र सुनहरा हो गया रफ़्ता रफ़्ता शाम का हर रंग गहरा हो गया या तो अब आहट कोई मुझ तक पहुँच पाती नहीं या मिरे अंदर का सारा शहर बहरा हो गया एक इक कर के हर इक तस्वीर धुँदलाती गई जब उदासी का कुआँ कुछ और गहरा हो गया क्या कहूँ किस शहर की वीरानियाँ आँखों में थीं जिस घने जंगल से मैं गुज़रा वो सहरा हो गया