दिल में एहसास-ए-फ़ना के भी फ़ना होने तक उम्र दरकार है सामान-ए-बक़ा होने तक ख़त्म हो जाएगी इक रोज़ फ़ज़ा की ये घुटन क़ैद में रहना ही होता है रिहा होने तक ये न होता तो कहाँ होता इलाज-ए-अमराज़ दर्द अल्लाह का है इनआ'म शिफ़ा होने तक तेरी यूँ बैठ के तन्हाई में कोशिश है अबस तजरबे ज़ीस्त के कर शेर नया होने तक मस्लहत उस की वही जाने मगर ऐ 'जावेद' हम तो मर जाएँगे मक़्बूल-ए-दुआ होने तक