दूर थे होश-ओ-हवास अपने से भी बेगाना था उन को बज़्म-ए-नाज़ थी और मुझ को ख़ल्वत-ख़ाना था खींच लाया था ये किस आलम से किस आलम में होश अपना हाल अपने लिए जैसे कोई अफ़्साना था छोटे छोटे दो वरक़ जल जल के दफ़्तर बन गए दर्स-ए-हसरत दे रहा था जो पर-ए-परवाना था जान कर वारफ़्ता उन के छेड़ने की देर थी फिर तो दिल इक होश में आया हुआ दीवाना था ज़ौ-फ़िशाँ होने लगा जब दिल में हुस्न-ए-ख़ुद-नुमा फिर तो काबा 'आरज़ू' काबा न था बुत-ख़ाना था