दुश्मनों को दोस्त भाई को सितमगर कह दिया लोग क्यूँ बरहम हैं क्या शीशे को पत्थर कह दिया इस लिए मुझ को अमीर-ए-शहर ने दी है सज़ा मैं ने ख़ुद को ख़ादिम-ए-सिब्त-ए-पयम्बर कह दिया चढ़ते सूरज की परस्तिश में सभी मसरूफ़ थे मुझ से जब पूछा गया अल्लाहु-अकबर कह दिया कितने सादा-लौह हैं ये सब सफ़ीरान-ए-जुनूँ राहज़न भी मिल गया तो उस को रहबर कह दिया हो गया दुश्मन भी मेरे हौसले का मो'तरिफ़ मुझ को दरिया-ए-हवादिस का शनावर कह दिया शेर कहने में मुझे 'आजिज़' मज़ा आने लगा उस ने जब बे-साख़्ता मुझ को सुख़न-वर कह दिया