हवादिसात के मारे सऊबतों में पले निगाह-ए-गर्म से तरसाँ हों बिजलियों के जले वो बुत-कदा था जहाँ सर झुके चराग़ जले ये मय-कदा है यहाँ ख़म उठे शराब चले ये रक़्स-ए-अंजुम-ओ-महताब ये समाँ ये सुकूँ ये दौर-ए-मय अभी कुछ और थोड़ी देर चले जो अपने आप ही में कर्दा-राह-ए-मंज़िल थे रह-ए-हयात में कुछ ऐसे रहनुमा भी मिले बिसात-ए-अंजुम-ओ-मह हो कि मय-कदे का ख़रोश ये बज़्म रंग पे आती है अपनी रात ढले ज़िया वो दी है मिरे दाग़-हा-ए-दिल ने कि बस चराग़-ए-बज़्म-ए-तमन्ना न एक रात जले जो अपनी क़ौम की कश्ती कि ख़ुद डुबो डाले हम ऐसे राहबर-ए-क़ौम के बग़ैर भले इसी तज़ाद में मुज़्मर है ज़िंदगी का फ़ुसूँ कहीं चराग़ बुझे और कहीं चराग़ जले ख़ुदा बचाए बस उस मीर-ए-कारवाँ से 'जलील' जो काट लेता हो ख़ुद अहल-ए-कारवाँ के गले