ऐ दीदा ख़ानुमाँ तू हमारा डुबो सका लेकिन ग़ुबार यार के दिल से न धो सका तुझ हुस्न ने दिया न कभू मुफ़्सिदी को चैन फ़ित्ना न तेरे दौर में फिर नींद सो सका जो शम्अ-तन हुआ शब-ए-हिज्राँ में सर्फ़-ए-अश्क पर जिस क़दर मैं चाहे था उतना न रो सका 'सौदा' क़िमार-ए-इश्क़ में शीरीं से कोहकन बाज़ी अगरचे पा न सका सर तो खो सका किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़ ऐ रू-सियाह तुझ से तो ये भी न हो सका