ज़िंदगी एक सज़ा हो जैसे किसी गुम्बद की सदा हो जैसे रात के पिछले पहर ध्यान तिरा कोई साए में खड़ा हो जैसे आम के पेड़ पे कोयल की सदा तेरा उस्लूब-ए-वफ़ा हो जैसे यूँ भड़क उठ्ठे हैं शो'ले दिल के अपने दामन की हवा हो जैसे रह गए होंट लरज़ कर अपने तेरी हर बात बजा हो जैसे दूर तकता रहा मंज़िल की तरफ़ रह-रव-ए-आबला-पा हो जैसे यूँ मिला आज वो 'राहत' हम से एक मुद्दत से ख़फ़ा हो जैसे