ऐ दिल-ए-दर्द-आश्ना हुस्न से रस्म-ओ-राह कर इश्क़ है बाइ'स-ए-नजात शौक़ से तो गुनाह कर लुत्फ़ भी गाह-गाह कर ज़ुल्म भी बे-पनाह कर जैसे भी तुझ से हो सके मुझ से मगर निबाह कर मेरे सवाल-ए-वस्ल पर आज वो मुझ से कह गए तू अभी चंद रोज़ और हिज्र में आह आह कर हुस्न तिरे हुज़ूर ख़ुद आए ब-इज़्तिराब-ए-दिल ऐ दिल-ए-दर्द-आश्ना ऐसी भी एक आह कर शौक़ है गर वक़ार का गुलशन-ए-रोज़गार में फूलों के साथ ही 'अज़ीज़' काँटों से भी निबाह कर