ऐ दिल-ए-ज़ार कहीं नींद न हो तारी चश्म-ए-दरवेश भी ख़्वाबों से नहीं आरी जिस्म का दश्त भी सुनसान है बरसों से मुल्क-ए-दिल पर भी नहीं रूह की सरदारी चाँद से कम न थी हम हिज्र के मारों को उस शब-ए-तार में मौहूम सी चिंगारी यक-ब-यक कौन मिरी फ़िक्र में दर आया नहर-ए-ख़ुश्बू सी बयाबाँ में हुई जारी राख के ढेर में शो'ला है कोई रक़्साँ मेरे अंदर है अभी तक कोई इंकारी ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ तिरी ज़ंजीर बनेगी कब कब अमल में मिरी आएगी गिरफ़्तारी