ऐ दोस्त! तिरी आँख जो नम है तो मुझे क्या मैं ख़ूब हँसूँगा तुझे ग़म है तो मुझे क्या क्या मैं ने कहा था कि ज़माने से भला कर अब तू भी सज़ावार-ए-सितम है तो मुझे क्या हाँ ले ले क़सम गर मुझे क़तरा भी मिला हो तू शाकी-ए-अर्बाब-ए-करम है तो मुझे क्या जिस दर से नदामत के सिवा कुछ नहीं मिलता उस दर पे तिरा सर भी जो ख़म है तो मुझे क्या मैं ने तो पुकारा है मोहब्बत के उफ़क़ से रस्ते में तिरे संग-ए-हरम है तो मुझे क्या भूला तो न होगा तुझे सुक़रात का अंजाम हाथों में तिरे साग़र-ए-सम है तो मुझे क्या पत्थर न पड़ें गर सर-ए-बाज़ार तो कहना तू मोतरिफ़-ए-हुस्न-ए-सनम है तो मुझे क्या मैं सरमद ओ मंसूर बना हूँ तिरी ख़ातिर ये भी तिरी उम्मीद से कम है तो मुझे क्या