मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है बड़े झगड़ों पे क़ाबू पा लिया है तसव्वुर फ़िल-हक़ीक़त मो'जिज़ा है किसी का दिल पे साया पड़ रहा है ख़ुदा ही से न क्यूँ माँगूँ पनाहें कि ज़ेहन-ए-ना-ख़ुदा में भी ख़ुदा है मुहाफ़िज़ भी मिरा मजबूर निकला गिना करता हूँ मैं वो देखता है समझता है तुझे अपनी तजल्ली तिरा परतव भी कितना ख़ुद-नुमा है ख़ुदा-ए-इश्क़ है वो हुस्न-ए-काफ़िर मगर अब तक न समझा इश्क़ क्या है