ऐ हज़रत-ए-ईसा नहीं कुछ जा-ए-सुख़न अब वो आ गए रखवाइए तह कर के कफ़न अब सींचा गया फूला है नए सर से चमन अब अश्कों ने किए सब्ज़ मिरे दाग़-ए-कुहन अब वो शौक़-ए-असीरी खुले गेसू के शिकन अब तरसेंगे क़फ़स के लिए मुर्ग़ान-ए-चमन अब ख़ामोशी ने मादूम किया और दहन अब तुम ही कहो बाक़ी रही क्या जा-ए-सुख़न अब यारान-ए-वतन को है ग़रीबों से किनारा ग़ुर्बत का तक़ाज़ा है करो तर्क-ए-वतन अब सुन लीजिए कुछ क़िस्सा-ए-बेताबी-ए-दिल को जो जी में हो कह लीजिए फिर मुश्फ़िक़-ए-मन अब सीमाब बनाया बुत-ए-हिज्राँ ने जिगर को दिल ठहरने देती नहीं सीना की जलन अब आख़िर कोई हद भी तिरी ऐ दूरी-ए-ग़ुर्बत मायूस हुए जाते हैं यारान-ए-वतन अब क्या फ़िक्र है ऐ 'शोला' पियो बादा-ए-रंगीं डालो भी कहीं भाड़ में ये रंज-ओ-मेहन अब