ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या होगा न वक़्फ़-ए-दिल कभी कैफ़-ए-तबस्सुमात क्या मस्त-ए-नज़र अगर नहीं साग़र-ए-दिल में बादा-रेज़ बज़्म-ए-नवाज़िशात क्या दौर-ए-तवज्जोहात क्या कब से हैं रिंद मुंतज़िर चश्म-ए-करम पे है नज़र शोख़ निगाह के लिए वज्ह-ए-तकल्लुफ़ात क्या ढूँडती फिरती है नज़र शाहिद-ए-बज़्म-ए-नाज़ को उस को मगर ख़बर नहीं कैफ़-ए-तसव्वुरात क्या हुस्न-ए-तलब ये है कि तू उस से उसी को माँग ले उस के सिवा हयात क्या मक़्सद-ए-काएनात क्या अपने ही दिल की बज़्म में उस का जमाल देखिए दीदा-ए-शौक़ के लिए और हरीम-ए-ज़ात क्या शौक़-ओ-तलब से 'ताज' अब आलम-ए-इज़्तिराब है एक ज़रा से दिल में ये शोरिश-ए-काएनात क्या