ऐ निगाह-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया पहले पहले रौशनी दी फिर अंधेरा कर दिया आदमी को दर्द-ए-दिल की क़द्र करनी चाहिए ज़िंदगी की तल्ख़ियों में लुत्फ़ पैदा कर दिया उस निगाह-ए-शौक़ की तीर-अफ़गनी रक्खी रही मैं ने पहले उस को मजरूह-ए-तमाशा कर दिया उन की महफ़िल के तसव्वुर ने फिर उन की याद ने मेरे ग़म-ख़ाना की रौनक़ को दो-बाला कर दिया मय-कदे की शाम और काँपते हाथों में जाम तिश्नगी की ख़ैर हो ये किस को रुस्वा कर दिया