ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल सूरत-ए-नाक़ूस हैं गब्र-ओ-मुसलमाँ आज-कल बाग़ में कहते हैं वो लाले का तख़्ता देख कर गुल खिलाती है अजब ख़ाक-ए-शहीदाँ आज-कल हर्फ़-ए-मतलब अपने दीवाने का भी सुन जा ज़रा हो तुझे छुट्टी जो ऐ तिफ़्ल-ए-दबिस्ताँ आज-कल मौसम-ए-जोश-ए-जुनूँ है जामा-ए-गुल की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद होते हैं टुकड़े जेब-ओ-दामाँ आज-कल पेशतर ख़त से मज़ा था हुस्न का ऐ नौनिहाल हो गया दाग़ी तिरा सेब-ए-ज़नख़दाँ आज-कल याद करते हैं किसी के मुसहफ़-ए-रुख़्सार को ताक़-ए-निस्याँ पर रखा है हम ने क़ुरआँ आज-कल ज़ुल्फ़ें छोड़ी हैं जो उस सय्याद-ए-गुल-रुख़्सार ने दाम में फँसते हैं मुर्ग़ान-ए-गुलिस्ताँ आज-कल हाए वो ख़ुश-क़द पए-गुल-गश्त अब आता नहीं नख़्ल-ए-मातम है हर इक सर्व-ए-गुलिस्ताँ आज-कल ज़ोफ़ के हाथों हुए फ़स्ल-ए-जुनूँ में तंग हम हो गया फाँसी हमें अपना गरेबाँ आज-कल इन दिनों में ज़ूर होता है हमें जोश-ए-जुनूँ भागता है छोड़ कर मजनूँ बयाबाँ आज-कल जो हसीं है गर्द है इस बादशाह-ए-हुस्न की रहता है परियों की झूमर में सुलैमाँ आज-कल एँडते हैं कज-अदाई करते हैं उश्शाक़ से बल की लेते हैं बहुत गेसू-ए-जानाँ आज-कल गुलशन-ए-आलम मिरी नज़रों में बाग़-ए-सब्ज़ है देखता हूँ सब्ज़ा-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ आज-कल सामना हर रोज़ का है उस बुत-ए-सफ़्फ़ाक से ऐ 'सबा' अल्लाह है अपना निगहबाँ आज-कल